खेती-किसानी की कहानी

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खेती-किसानी जीवन को कैसे सुखद आयाम प्रदान करती हैं इसका एक उदहारण इस स्लाइड शो से दर्शाने का प्रयास है. जीवन के सौन्दर्य से भरण-पोषण का भार खेती-किसानी पर ही है. यह पसीने से सिंची जाने वाली और पूस  की रात में बेखबर किसानी की मेहनत है. कभी सुखा-कभी अतिवृष्टि की लड़ाई से लड़ी उत्पाद है. खेती -किसानी चूल्हे की रोटी है तो वह रेस्टोरेंट के लजीज जायके की डिस भी है. यह गरीब की रसोई से लेकर पांच सितारा होटल की मुख्य कंटेंट है. इसमें मासूमियत भी है तो इसमें विकास, नवयोवन और समृद्धि का इतिहास भी है. यह सिर्फ देखने वाले नजर की बात है. आप अपना चस्मा अगर मेरे चश्में से बदल लेंगे तो आप भी इसके सौन्दर्य का अवश्य ही रसास्वादन कर सकेंगे इसका यकीं है.

 

मौसम आधारित कृषि परामर्श

बीते सप्ताह का मौसम (23 से 29 अप्रैल,2016)

सप्ताह के दौरान आसमान साफ रहा. दिन का अधिकतम तापमान 37.5 से 40.8 डिग्री सेल्सियस (साप्ताहिक सामान्य 37.3 डिग्री सेल्सियस) तथा न्यूनतम तापमान 16.2 से 20.5 डिग्री सेल्सियस (साप्ताहिक सामान्य 21.3 डिग्री सेल्सियस) रहा. इस दौरान पूर्वाह्न 7.21 को सापेक्षिक आर्द्रता 50 से 73 तथा दोपहर बाद अपराह्न 2.21 को 20 से 53 प्रतिशत दर्ज की गई.सप्ताह के दौरान दिन में औसत 8.9 घंटे  प्रतिदिन (साप्ताहिक सामान्य 8.9 घंटे) धूप खिली रही.हवा की औसत गति 4.8 कि.मी.प्रतिघंटा (साप्ताहिक  सामान्य 5.2 कि.मी. प्रतिघंटा) तथा वाष्पीकरण की औसत दर 9.0 मि.मी. (साप्ताहिक सामान्य 9.4 मि.मी) प्रति दिन रही. सप्ताह के दौरान पूर्वाह्न को हवा भिन्न-भिन्न दिशाओ से रही तथा अपराह्न को उत्तर-पश्चिम दिशा से रही. Continue reading मौसम आधारित कृषि परामर्श

केले ने बनाया करोड़पति

अगर कोई कहे कि किसान सालाना करोड़ रुपए कमा सकते हैं, तो सुनने वाला उसे पागल समझ सकता है. मगर महाराष्ट्र का जलगांव भारत में केलों की राजधानी है और यहां के कई किसान करोड़पति.

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कभी चाय बेचने वाले टेनु  डोंगार बोरोले केला की पैदावार कर अब तेनु सेठ बन चुके हैं.

62 साल के टेनू डोंगार बोरोले और 64 साल के लक्ष्मण ओंकार चौधरी ऐसे ही किसान हैं.

एक पहले चौराहे पर चाय बेचते थे और गांव वाले उन्हें टेनया बुलाते थे. अब वे टेनु सेठ बन गए हैं.

तो लक्ष्मण शिक्षक थे. सिंचाई की कमी, केलों के पौधे पालने-पोसने की सुविधा और बाज़ार तक इनकी पहुँच ने इनकी किस्मत बदल दी.

चौधरी 1974 से ही केले की खेती कर रहे थे. तब वह परंपरागत केले ही पैदा करते थे, जिनमें 18 महीने में एक बार फल आते थे. Continue reading केले ने बनाया करोड़पति

गरीब की दाल कैसे गलेगी

गरीब की दाल कैसे गलेगी फिर से यह समस्या विकराल हो रही है. कालाबाजारी और जमाखोरी के चलते एक बार फिर दालों की कीमतें आसमान छूने को उत्सुक हैं. हालांकि केंद्र सरकार इस जमाखोरी पर नजर रखे हुए है. केंद्रीय पर्यावरण एवं वनमंत्री प्रकाश जावडेकर ने सभी राज्यों को जमाखोर व्यापारियों के खिलाफ कड़ाई बरतने के निर्देश दिए हैं. दालों में उछाल का दूसरा कारण महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, राजस्थान और झारखंड में पड़ा सूखा भी है. दालों की पैदावार में बढ़ोतरी के लिए सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य में दो सौ रुपए प्रति क्विंटल की वृद्धि करने पर विचार कर रही है. धान पर भी साठ रुपए प्रति क्विंटल की मूल्यवृद्धि हो सकती है. ये सिफारिशें कृषि लागत व मूल्य आयोग (सीएसीपी) ने कृषि मंत्रालय से की हैं. बावजूद सरकार दालों की सट्टेबाजी रोकने के लिए दालों को वायदा व्यापार की सूची से बाहर क्यों नहीं कर रही है, यह समझना मुश्किल है. दालों का इस सट्टे के लिए बड़े पैमाने पर भंडारण किया जा रहा है. आहार में पौष्टिक तत्त्वों का कारक मानी जाने वाली दालें, बढ़ते दामों के कारण गरीबों की पहुंच से दूर होती जा रही हैं.

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पानी के बारे में ये जानते हैं आप?

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तेज़ी से बढ़ती जनसंख्या और उसकी ज़रूरतों के चलते प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता घटती जा रही है.

वर्ष 1965 में जहाँ हर भारतीय के लिए सालाना 3000 क्यूबिक मीटर पानी उपलब्ध था वो साल 2015 में घट कर 1130 क्यूबिक मीटर पर आ चुका है.

आप ये पढ़ कर हैरान रह जाएंगे कि विश्व में प्रति व्यक्ति ये औसत 6000 क्यूबिक मीटर है.

बहराल, पानी पर कुछ आंकड़े चौंकाने वाले भी हैं-

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-BBC साभार

दलहन उत्पादन में आत्मनिर्भरता की ओर कदम

भारत सरकार ने इस वर्ष के आम बजट में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन के अंतर्गत दलहनी फसलों की उत्पादकता तथा उत्पादन बढ़ाने हेतु 500 करोड़ रू. के बजट का प्रावधान रखा है जिससे देश में दलहन सुरक्षा की ओर हम कई कदम आगे बढ़ेंगे. दालों के उच्च गुणवत्तायुक्त बीजों की उपलब्धता बढ़ाने हेतु राष्ट्र में बीज हब का निर्माण किया जा रहा है. आने वाले समय में उच्य गुणवत्ता वाला बीज दलहन उत्पादन में क्रांति लाएगा.

शाकाहारी भोजन में दलहनी फसलों का महत्वपूर्ण स्थान है. दलहनी फसलों में प्रोटीन की मात्रा धान्य फसलों की अपेक्षा 2.3 गुना अधिक पायी जाती है. विभिन्न दालों में प्रोटीन की मात्रा औसतन 22 से 24 प्रतिशत तक पायी जाती है. प्रोटीन के साथ अन्य पोषक तत्व जैसे कार्बोहाईड्रेट,खनिज पदार्थ, विटामिन व अन्य पोषक तत्व भी दालों में प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं. लौह तत्व जो कि एनिमिया रोग का नाश करने में सहायक है भी दलहनी फसलों में पाए जाते हैं. भारत एवं दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों में दालों का पोषक तत्वों तथा शाकाहारी जनसंख्या की बहुलता के कारण साथ अन्य देशों की अपेक्षा अधिक महत्व है. अमेरिकी तथा अन्य यूरोपीय देशों में भी दालों के विभिन्न उत्पाद जैसे सूप,चटनी,बेकरी एवं ग्लुटेन मुक्त उत्पाद लोकप्रिय हैं. देश के विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में लगभग एक दर्जन से भी अधिक दलहनी फसलें उगायी जाती हैं. मुख्य रूप से उगाई जानी वाली दलहनी फसलों में चना (41 फीसदी), अरहर (15 फीसदी), उड़द (10 फीसदी), मूँग (9 फीसदी), लोबिया (7 फीसदी), मसूर एवं मटर (5 फीसदी) हैं. इसके अलावा राजमा, कुल्थी, खेसारी, ग्वार इत्यादि अन्य दलहनी फसलें भी भारत में उगाई जाती हैं.

सन् 2010 से पहले देश में दालों का उत्पादन स्थिरता की स्थिति से जूझ रहा था और 140-150 लाख टन के आसपास बना हुआ था. 2010 के पश्चात् दलहन उत्पादन में राष्ट्र में क्रान्तिकारी परिवर्तन दर्ज किया गया और उत्पादन 192.50 लाख टन (2013-14) के रिकार्ड स्तर तक जा पहुँचा जो अभी तक का सबसे अधिक उत्पादन रहा है. यह शानदार उपलब्धि दलहन शोधकर्ताओं और दलहन उत्पादक कृषकों के लिए प्रेरणा का कारण बनी है तथा इस ने शोधकर्ताओं एवं कृषकों को देश को दलहन उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में कार्य करने हेतु प्रोत्साहित किया है.

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भारत विश्व का सबसे बड़ा दलहन उत्पादक एवं उपभोक्ता देश है. विश्व के कुल उत्पादन (लगभग 800 लाख टन) का लगभग 25 फीसदी भारत में ही पैदा होता है. इसके साथ लगभग इतनी ही मात्रा में (28 फीसदी) दालों का उपभोग भी यह देश करता है. सन् 2012-13 में कुल दलहन उत्पादन लगभग 183.40 लाख टन दर्ज किया गया था जो पिछले साल की अपेक्षा 7.31 फीसदी अधिक था. यह 2013-14 में बढ़कर 192.50 लाख टन पहुँच गया किंतु वर्ष 2014-15 दलहन उत्पादन के लिए अच्छा नही रहा. इसके पीछे मुख्य रूपसे प्रतिकूल मौसम का प्रभाव था. फलस्वरूप भारत में 2014-15 में दलहन उत्पादन 172.0 लाख टन रहा यद्यपि यह गिरावट स्थायी नही है और अगले वर्ष इसकी क्षतिपूर्ति करने के लिए राष्ट्र प्रतिबद्ध है.

दलहन उत्पादन एवं उत्पादकता में सन् 2000-2012 के मध्य सकारात्मक वृद्धि दर्ज की गयी जो पिछले तीन दशकों में उच्चतम स्तर की वृद्धि है. पिछले चार दशकों (1970-2010) में दलहन उत्पादन की विकास दर 2.61 फीसदी रही जो गेहूँ (1.89 फीसदी), धान (1.59 फीसदी) और सभी धान्य फसलों (1.88 फीसदी) से अधिक थी. यह एक स्पष्ट संकेत है कि दलहन उत्पादन में वृद्धि की संभावनायें अन्य फसलों से अधिक हैं. विभिन्न दलहनी फसलों के तुलनात्मक अध्ययन में सबसे ज्यादा वृद्धि दर चना उत्पादन (5.89 फीसदी) में दर्ज की गई. इसके पश्चात 2.61 फीसदी वृद्धि अरहर में दर्ज की गई. आधुनिक तकनीकी, इनका सही समय पर किसानों को हस्तान्तरण तथा किसानों द्वारा इनका अंगीकरण इन फसलों में वृद्धि के प्रमुख कारक हैं. शोधकर्ताओं के अथक प्रयास, सरकार की ओर से सकारात्मक पहल, सहयोगी विभागों की सक्रियता, नीति निर्माताओं की सकारात्मक सोच और सबसे ऊपर किसानों की सक्रिय भागीदरी से यह वृद्धि दर प्राप्त हो पाई है. इन सभी कारणों के साथ साथ अनुकूल वातावरण के प्रभाव को भी नकारा नही जा सकता. साथ ही दलहनी फसलों की उन्नतशील प्रजातियों का विकास, गुणवत्तायुक्त बीजों की उपलब्धता, फसल प्रबंधन एवं सुरक्षा तकनीक और अन्य सहयोगी विभागों की सक्रियता की भूमिका को भी नकारा नही जा सकता जो कुल मिलाकर दलहन उत्पादन को बढ़ानें के मुख्य आधार रहे हैं. इसके बावजूद वर्तमान में देश में दलहन सुनिश्चितता हेतु प्रतिवर्ष लगभग 30-40 लाख टन दालों का आयात विदेशों से करना पड़ता है जो सरकारी खजाने पर काफी बोझ ड़ालता है. ऐसी स्थिति में राष्ट्र में दलहन उत्पादन बढ़ाने की दिशा में सतत् प्रयास करने की आवश्यकता है. इस दिशा में दलहनी फसलों का क्षेत्र विस्तार जो कि लगभग 40-50 लाख हे. का है, में अथक प्रयास करने से भारत अवश्य ही दलहन उत्पादन में स्वावलम्बी बन सकेगा.

दलहनी फसलों में क्षमता के अनुरूप (1.2 से 2.0 टन) उत्पादन न मिल पाने के बाधक कारकों में दलहन उत्पादन क्षेत्रों में व्याप्त जैविक एवं अजैविक कारक तथा सामाजिक एवं आर्थिक कारण प्रमुख हैं. जैविक कारकों में मुख्य रूप से रोगों एवं कीटों की बहुतायात इन फसलों की उत्पादकता पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है. अजैविक कारकों में मुख्य रूप से फसल पकते समय सूखे की स्थिति एवं उच्च तापमान, पौधा वृद्धि के समय तथा फूल आने के समय शीत के प्रति अतिसंवेदनशीलता और मृदा की लवणता एवं क्षारीयता प्रमुख हैं. इन सभी कारणों से दलहनी फसलों में उत्पादन कम होता है और उत्पादकता स्थिर नहीं रहती है. फलतः दलहनी फसलों को निम्न उत्पादकता युक्त तथा जोखिम भरी फसलों के रूप में देखा जाता रहा हैं.

नई उपलब्ध तकनीकों के अलावा दालों को गैर-परंपरागत क्षेत्रों में उगाने की पहल भी नई उम्मीदें लेकर सामने आयी है. साथ ही धान परती क्षेत्रों में दालें उगाने की संभावनाओं से क्षेत्रफल विस्तार की संम्भावनाओं को बल मिला है. शोधकर्ताओं ने चने और अरहर के जीनोम को पूर्णतया अनुक्रमित कर लिया है. इसके साथ ही वैज्ञानिकों ने मूँग के जीनोम का भी मसौदा तैयार कर लिया है. इन फसलों में जीनोम के अनुक्रमित हो जाने से वांछित गुण वाली प्रजातियों के शीघ्र विकास में सहायता मिलेगी. ट्रान्सजेनिक अरहर और चने के विकास में भी शीघ्रता आयेगी जो फली भेदक कीट के प्रति प्रतिरोधिता प्रदान करेगा और इन कीटों का फसलों पर प्रभाव न के बराबर होगा. अनुसंधान के अलावा तकनीकी प्रसार को बढा़वा देने के लिए बहुत सारी परियोजनायें संस्थान द्वारा चलायी जा रही है जिनमें मुख्य रूप से कृषक भागीदारी द्वारा बीज उत्पादन, किसान से किसान तक विस्तार मॉडल, दलहन बीज गाँव का विकास, अन्तर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय प्रशिक्षण कार्यक्रमों का आयोजन, किसान अनुकूल साहित्य का प्रकाशन और आनलाइन किसानों की समस्याओं के समाधान के लिए पल्स एक्सपर्ट प्रणाली का विकास शामिल हैं.

दलहनी फसलों में क्षमता के अनुरूप उत्पादन प्राप्त करने तथा तकनीकी अन्तराल को कम करने हेतु अनेक प्रयास किए जा रहे हैं. इनमें मुख्य रूप से गुणवत्तायुक्त बीज का उत्पादन, खरपतवारनाशी दवाओं का प्रयोग, सुलभ सिंचाई पद्धति का विकास, अरहर में संकर प्रजतियों का विकास, नई पौध किस्‍म का विकास, मार्कर सहायतार्थ अनुसंधान को बढ़ावा तथा विशिष्ट क्षेत्रों के लिए प्रजातियों का विकास शामिल है. इन सभी प्रयासों के समन्वय से निश्चय ही दलहन उत्पादन बढा़या जा सकेगा.

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मानव भोजन तथा मृदा में दलहनी फसलों की उपयोगिता को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वावधान में वर्ष 2016 को अंतर्राष्ट्रीय दलहन वर्ष घोषित किया गया हैं ताकि संपूर्ण विश्व में आम जनमानस को दलहनी फसलों के उपयोगों के बारे में जागरूक किया जा सके. तथा इनका प्रचार एवं प्रसार संपूर्णं विश्व में हो. भारत सरकार दलहनी फसलों के आम जीवन में महत्व को भली प्रकार से जानती है तथा इन्हें लाभकारी बनाने हेतु सरकार ने अनेक क्रांतिकारी योजनाएं बनायी हैं तथा क्रियान्वित की हैं. किसानों को प्रतिकूल मौसम तथा प्राकृतिक आपदाओं से बचाने के लिए बेहद कम प्रीमियम पर फसल बीमा योजना प्रारंभ की गयी है. साथ ही प्रतिकूल परिस्थितियों में आकस्मि‍कता से निपटने हेतु देश में दालों का बफर स्टॅाक भी बनाया जा रहा है जिसमें अब तक 50000 टन से अधिक बफर स्टॉक तैयार किया जा चुका है. इसके साथ ही बाजार भाव पर दालों के अधिग्रहण की प्रक्रिया भी प्रारंभ की गयी है. दलहन कृषकों को प्रोत्साहित करने हेतु सभी मुख्य दलहनी फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाया गया है. गत वर्ष में चना का समर्थन मूल्य 2.42 प्रतिशत, अरहर का 1.16 प्रतिशत, मूंग का 2.22 प्रतिशत, उड़द का 1.16 प्रतिशत तथा मसूर का 4.24 प्रतिशत बढ़ाया गया है.

भारत सरकार ने इस वर्ष के आम बजट में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन के अंतर्गत दलहनी फसलों की उत्पादकता तथा उत्पादन बढ़ाने हेतु 500 करोड़ रू. के बजट का प्रावधान रखा है जिससे देश में दलहन सुरक्षा की ओर हम कई कदम आगे बढ़ेंगे. दालों के उच्च गुणवत्तायुक्त बीजों की उपलब्धता बढ़ाने हेतु राष्ट्र में बीज हब का निर्माण किया जा रहा है. आने वाले समय में उच्य गुणवत्ता वाला बीज दलहन उत्पादन में क्रांति लाएगा.
दलहन की खेती हमेशा से वर्षा आधारित क्षेत्रों एवं कम उपजाऊ क्षमता वाली भूमि में होती रही है. इसकी वजह से उत्पादन एवंम उत्पादकता में स्थिरता नही लायी जा सकी है. विश्व की जनसंख्या बहुत तेजी से बढ़ने के कारण पोषण युक्त खाद्य सुरक्षा मुहैया कराना बहुत मुश्किल होगा. इस मांग को पूरा करने के लिए दलहन उत्पादन को बढ़ाने की दिशा में नए कदम उठाने होंगे. एक अनुमान के अनुसार वर्ष 2050 तक देश में दालों की मांग 390 लाख टन के आस-पास होगी. इस मांग को पूरा करने के लिए हमें 2.14 प्रतिशत की दर से विकास हासिल करना होगा, इसके अलावा 40-50लाख हे. नये क्षेत्रफल को दलहन उत्पादन में लाना होगा. कटाई के बाद होने वाली हानि को रोकने के साथ 10 प्रतिशत अधिक बीज उत्पादन करना होगा, अनुसंधान एवं तकनीकी में मूलभूत परिर्वतन के साथ इसके प्रसारण और व्यापार को ज्यादा से ज्यादा बढ़ावा देना होगा. दलहनी फसलों का भौगोलिक स्थानान्तरण इस बात का सूचक है कि दलहन को विविध जलवायु वाले क्षेत्रों में सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है. कम अवधि में पकने वाली प्रजातियों के विकास से चने का उत्पादन मध्य और दक्षिण भारत के क्षेत्रों में भी होने लगा है. साथ ही गर्मी वाली मूँग की खेती राजस्थान में भी होने लगी है. फसल की सघनता और फसल पद्धति में बदलाव करके दलहन उत्पादन को सिंचित और अंसिचित क्षेत्रों में भी फैलाये जाने की संभावना है. धान- गेंहू फसल पद्धति का 10.5 मिलियन हेक्‍टेयर क्षेत्रफल भी दलहन उत्पादन के प्रयोग में लाना होगा. उसी तरह से पूर्वी भारत का क्षेत्र जो धान की फसल लेने के बाद खाली रह जाता है, को भी दलहन उत्पादन में प्रयोग में लाना होगा. दलहनी फसलों को गन्ने, बाजरा और ज्वार की दो पंक्तियों के मध्य बोने से 25 लाख हे. अतिरिक्त क्षेत्रफल दलहन उत्पादन के प्रयोग में लाया जा सकेगा. जलवायु परिवर्तन आज के दौर में एक और चुनौती के रूप में उभर रहा है. तदनुसार दलहन शोधकर्ताओं को इन चुनौतियों से निपटने के लिए दलहनी फसलों के व्यापक विभिन्नताओं वाले प्रारूप के साथ तैयार रहना होगा.

पूर्ण विश्‍वास है कि हमारे मेहनतकश किसानों की लगन और वैज्ञानिकों द्वारा नित-नवीन अनुसंधान तकनीकों के समन्‍वय से राष्‍ट्र दलहन उत्‍पादन के क्षेत्र में प्रगति पथ पर अग्रसर होगा. सभी किसान भाईयों से अनुरोध है कि वे विज्ञान द्वारा विकसित नई-नई तकनीकों का इस्‍तेमाल करें और केन्‍द्र सरकार द्वारा चलाई जा रही किसान कल्‍याणकारी योजनाओं का लाभ उठाएं.

पपीते की खेती

पपीता वाकई इस कुदरत की अनोखी देन है. पपीता कई औषधियों गुणों से भरपूर होता है, साथ ही सेहत के लिए भी बहुत लाभदायक होता है. पपीते की सबसे बड़ी खासियत ये है कि ये बहुत कम समय फल दे देता है. इसे लगाने में भी ज्यादा मुसीबत का सामना नहीं करना पड़ता. पपीते में कई महत्वपूर्ण पाचक एन्ज़ाइम तत्व मौजूद रहते है. इसलिए बाज़ार में पपीते की मांग लगातार बढ़ रही है. पपीते की फसल किसानों को कम समय में अधिक लाभ कमाने का अवसर देती है. हमारे देश में पपीता गृह वाटिका में उगाना प्रचलित है इसकी पैदावार शीतकटिबन्धीय क्षेत्रो को छोड़कर पूरे देश में की जाती है लेकिन अब इसकी खेती व्यवसायक रूप में की जाती है. इसे एक बार लगा देने पर दो फसल ली जाती है इसकी कुल आयु पौने तीन साल होती है. प्रति हेक्टेयर पपीते का उत्पादन 30 से 40 टन हो जाता है. आईये जानते हैं पपीते की उन्नत खेती करने का तरीका- Continue reading पपीते की खेती

खेती-किसानी को दूर से सलाम

 

खेती-किसानी की
 कैसे बदल रही कहानी 
खेत घट हो रहे प्लाट
 बिछ रहा कंक्रीट का जाल
 शहर आ गए बागों तक
 मारुती खड़ी दरवाजों पर
 बैल का खूंटा हो गया सुना
 नहीं रहा अब श्रृंगाल का रोना

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खीरे की खेती

सलाद के रूप में सम्पूर्ण विश्व में खीरा का विशेष महत्त्व है. खीरा को सलाद के अतिरिक्त उपवास के समय फलाहार के रूप में प्रयोग किया जाता है. इसके द्वारा विभिन्न प्राकर की मिठाइयाँ भी तैयार की जाती है. पेट की गड़बडी तथा कब्ज में भी खीरा को औषधि के रूप में प्रयोग किया जाता है. खीरा कब्ज़ दूर करता है.पीलिया, प्यास, ज्वर, शरीर की जलन, गर्मी के सारे दोष, चर्म रोग में लाभदायक है. खीरे का रस पथरी में लाभदायक है. पेशाब में जलन, रुकावट और मधुमेह में भी लाभदायक है. घुटनों में दर्द को दूर करने के लिये भोजन में खीरा अधिक खायें. इसका उपयोग आँखों के नीचे काले मार्क हटाने के लिए भी होता है.

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